
भारत के इतिहास में हिंदुओं पर हमले: एक नजर
भारत के बंटवारे से लेकर आज तक, इतिहास बार-बार एक ही दर्द दोहराता आया है—हिंदुओं को निशाना बनाना। चाहे वो 1947 में बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) का नरसंहार हो, 1989 में कश्मीरी पंडितों का पलायन, या फिर आज के पर्यटक जो पहलगाम में हमला झेलते हैं, एक सवाल उठता है:
क्या ये सब महज संयोग हैं, या फिर किसी विशेष मानसिकता का परिणाम?
1947: बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार
बंटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ दंगे, हत्या, बलात्कार और धर्मांतरण आम हो गए।
लाखों को अपना घर छोड़कर भारत भागना पड़ा।
1989: कश्मीरी पंडितों का विस्थापन
कश्मीर में उग्रवाद के नाम पर हजारों कश्मीरी पंडितों को मार डाला गया, और लाखों को बेघर कर दिया गया।
आज भी वो अपने ही देश में शरणार्थी हैं।
2024–2025: पहलगाम और कश्मीर में हिंदू पर्यटक निशाने पर
हाल ही में पहलगाम, अनंतनाग, और अन्य पर्यटन स्थलों पर हिंदू यात्रियों को आतंकवादियों ने निशाना बनाया।
जो लोग हिमालय की शांति तलाशने आए थे, उन्हें लौटकर घर भी नसीब नहीं हुआ।
“जब इतिहास बार-बार खुद को दोहराता है, तो शायद वो चीख़-चीख़ कर हमें चेताना चाहता है।”
1947 – बंटवारे का दर्द:
जिस घड़ी भारत और पाकिस्तान का जन्म हुआ, उस घड़ी दो देशों की सरहदों से ज़्यादा, इंसानों के दिलों में दरार पड़ गई। बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में लाखों हिंदुओं को या तो जबरन धर्म परिवर्तन का सामना करना पड़ा, या फिर अपनी ही धरती छोड़नी पड़ी।
मंदिरों को तोड़ा गया, स्त्रियों का अपमान हुआ, और गांव के गांव लाशों से पट गए।
1989 – कश्मीर की चुप्पी:
कश्मीर घाटी, जिसे भारत की जन्नत कहा जाता था, वहां से कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। यह विस्थापन किसी प्राकृतिक आपदा का परिणाम नहीं था, यह आतंक और संकीर्ण सोच की उपज थी।
“या तो इस्लाम अपनाओ, या घाटी छोड़ो” — यही नारे गूंजे।
तथाकथित सेक्युलर समाज ने इस पर मौन धारण कर लिया।
और आज – फिर वही रुदन:
पहलगाम, अनंतनाग, उधमपुर या बस किसी तीर्थ यात्रा पर निकले हिन्दू यात्रियों को निशाना बनाया जा रहा है।
जिनकी नज़रें बर्फ से ढकी वादियों की शांति में खो जाना चाहती थीं, वे अब सन्नाटे में खो गए।
परिवार इंतज़ार कर रहे हैं — लाशों के लौट आने का।
क्या यह सिर्फ़ आतंकवाद है?
या एक विशिष्ट मानसिकता है, जो हर उस अस्तित्व को मिटा देना चाहती है जो “सनातन” की बात करे?
वो सोच जो विविधता से नहीं डरती, बल्कि उसे नष्ट करना चाहती है।
“एक मंदिर की घंटी उन्हें चैन से क्यों नहीं सोने देती?”
“एक भगवा झंडा उन्हें क्यों उकसाता है?”
क्यों?
क्योंकि ये प्रतीक हैं सनातन आत्मा के, जो ना झुकती है, ना डरती है, ना मिटती है।
अब सवाल समाज से है:
क्या हम हर बार तब ही बोलेंगे जब लाशें गिरेंगी?
या अब वह समय आ गया है जब हम सोच को पहचानें — और उससे वैचारिक, सांस्कृतिक, और संवैधानिक स्तर पर जवाब दें?
यह किसी धर्म का विरोध नहीं। यह उस मनोवृत्ति का प्रतिकार है, जो ‘एकरूपता’ के नाम पर ‘बहुलता’ को कुचल देना चाहती है।
भारत का मूल ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है,
पर जब घर के ही एक सदस्य को बार-बार निशाना बनाया जाए,
तो मौन भी अन्याय का हिस्सा बन जाता है।
अब चुप्पी नहीं, चेतना चाहिए।
अब सहना नहीं, सजग होना होगा।
क्या ये सिर्फ आतंकवाद है या मानसिकता?
हर बार निशाना एक ही समुदाय क्यों?
क्या यह एक विशेष मानसिकता का परिणाम है जो सनातन संस्कृति, भगवा, और मंदिरों से चिढ़ रखती है?
इस सोच का विरोध जरूरी है —
क्योंकि ये मानसिकता बहुलता, सहिष्णुता और भारतीय संस्कृति को मिटाना चाहती है।
अब मौन नहीं, सजगता की जरूरत है
भारत की आत्मा “वसुधैव कुटुम्बकम्” कहती है, पर जब एक समुदाय को बार-बार मारा जाए, तो मौन भी पाप बन जाता है।
हमें अब सवाल पूछना होगा, बोलना होगा, और हर मंच पर खड़ा होना होगा।
निष्कर्ष:
यह ब्लॉग केवल शिकायत नहीं है, यह चेतना का आह्वान है।
जब तक हम मानसिकता नहीं पहचानेंगे, तब तक हम समाधान तक नहीं पहुँच सकते।
@newzquest