
(एक भावपूर्ण दृश्य)
[दृश्य : हस्तिनापुर का राजप्रासाद — एक शांत, उदास कक्ष। दूर कहीं शोकगीत गूंज रहे हैं। द्रौपदी निःशब्द, निर्विकार भाव से आकाश को निहारती हुई एक सिंहासन पर बैठी है। मुखमंडल पर पीड़ा और रिक्तता का गहन मिश्रण है। तभी श्रीकृष्ण प्रवेश करते हैं।]
द्रौपदी (कातर होकर कृष्ण को देखती है, फिर दौड़कर उनके गले लग जाती है।)
“सखा…!” (विलाप करती है।
[कृष्ण उसे सान्त्वना देते हैं। ममता भरे करुण स्पर्श से उसके मस्तक को सहलाते रहते हैं। द्रौपदी रुदन करती है, जैसे समस्त व्यथा बहा देना चाहती हो।]
[कुछ क्षणों बाद, कृष्ण उसे स्वयं से अलग कर एक आसन पर बिठा देते हैं। द्रौपदी आंसुओं से भरी दृष्टि से उन्हें देखती है।]
द्रौपदी (दुःख में डूबी वाणी से) —
“सखा… यह क्या हो गया…? ऐसा भयावह अंत तो मैंने स्वप्न में भी न सोचा था।”
कृष्ण (गंभीर, शांत स्वर में) —
“पांचाली, विधि का विधान अत्यंत कठोर होता है।
यह न तो हमारी कल्पना के अनुरूप चलता है,
न हमारी इच्छाओं के अधीन।
यह तो केवल हमारे कर्मों का ही प्रतिबिंब है।
तुम प्रतिशोध की अग्नि में जल रही थीं —
और तुमने उसे पूर्ण किया।
न केवल दुर्योधन व दुःशासन,
वरन् समस्त कौरव कुल का नाश हो गया।
अब तो तुम्हें संतोष का अनुभव होना चाहिए।”
द्रौपदी (आहत स्वर में) —
“सखा, क्या तुम मेरे जले घावों पर मरहम लगाने आए हो या उन पर विष छिड़कने?”
कृष्ण (सहृदय भाव से) —
“नहीं पांचाली, मैं तो तुम्हें सत्य का दर्पण दिखाने आया हूँ।
कर्मों के बीज जब बोए जाते हैं,
तो उनके फल को दूरगामी दृष्टि से देखना आवश्यक होता है।
अन्यथा जब परिणाम सामने आते हैं,
तब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहता।”
द्रौपदी (दुःखभरे स्वर में) —
“तो क्या समस्त विनाश के लिए मैं ही उत्तरदायी हूँ, माधव?”
कृष्ण (कोमल मुस्कान के साथ) —
“नहीं पांचाली, स्वयं को इतना भी महत्त्वपूर्ण न समझो।
किन्तु यदि तुमने अपने कुछ निर्णयों में
थोड़ी भी दूरदृष्टि और संयम रखा होता,
तो संभवतः यह भीषण परिणाम न आता।”
द्रौपदी (दबी-दबी आवाज़ में) —
“मैं क्या कर सकती थी, गोविंद?”
कृष्ण (गंभीरता से) —
**”जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ था,
यदि तुम कर्ण का उपहास न करतीं,
उसे प्रतियोगिता में सम्मिलित होने का अवसर देतीं,
तो संभवतः इतिहास की धारा कुछ और होती।
जब माता कुन्ती ने तुम्हें पाँचों पाण्डवों की अर्धांगिनी बनने का आदेश दिया,
यदि तुम धैर्यपूर्वक अपने हृदय की वाणी रखतीं,
तो भी परिणाम भिन्न हो सकते थे।
और जब तुमने अपने राजमहल में
दुर्योधन का उपहास कर ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहा —
यदि वह कटु वचन न उच्चारित होता,
तो शायद चीरहरण जैसी घोर दुर्घटना घटित न होती।”**
[कृष्ण कुछ क्षणों के लिए रुकते हैं, फिर अत्यंत मर्मस्पर्शी स्वर में कहते हैं:]
**”पांचाली, स्मरण रखो — हमारे ‘शब्द’ भी हमारे ‘कर्म’ होते हैं।
वचन भी वही शक्ति रखते हैं जो कर्म रखते हैं।
एक कटु शब्द किसी के मन को विदीर्ण कर सकता है,
और एक मधुर वचन किसी के जीवन में अमृत घोल सकता है।
मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है,
जिसका ‘जहर’ उसके ‘दांतों’ में नहीं, अपितु ‘शब्दों’ में होता है।
अतः वाणी का प्रयोग सदैव सोच-विचार कर करो।
ऐसे शब्दों का वरण करो,
जो प्रेम, करुणा और सौहार्द को जन्म दें —
न कि घृणा, वैर और विनाश को।”**
[द्रौपदी मौन हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू हैं, परंतु अब उनमें एक नई समझ, एक नवीन ज्योति झलकती है। बाहर युद्ध की राख से एक नया सवेरा जन्म लेने को है।]